Maa - Mukul Sharma

माँ
__________________

जब कभी मैं..माँ के विषय में..
लिखने का विचार करता हूँ...तो जैसे...
शब्द भी डरने लगते है...
अक्षर सब क्षरने लगते है....
और कहते है मुझसे...कि...
अस्तित्व का वर्णन हो सकता है...
पर माँ को... कौन वर्णित कर सकता है...?
संतो-अरिहंतो की दुआ होती है...
बुद्धो की जैसे पनाह होती है....
पूछे जब कोई... मैं क्या उपमा दूं....?
माँ तो बस.....माँ होती है.....

याद है वो दिन...जब मेरे होश में...
माँ ने मुझे पहली बार चूमा था....
स्तब्ध थी धडकने....
विराम लगा था विचारों पे...जैसे...
बाकी बस तारो को छूना था....
मेरे थोड़े से दुःख पे.... वो पलके भिगो ले...
पर खुद के लिए... वो कहाँ रोती है.....?
माँ तो बस......

मौन का संगीत है.....माँ....
खुदा की जैसे प्रीत है...माँ...
बरसात में मिटटी की खुशबु है...माँ...
बस याद करो...हर सू है...माँ...
चैतन्य-मीरा का नृत्य है...माँ...
इस देह में जैसे...वो सत्य है...माँ...
हम पत्ते तो जैसे डाली है...माँ...
पीरो की कब्बाली है...माँ...
अस्तित्व में है उसीका..अनुसरण...
कुछ ऐसी ही ..निराली है...माँ...
जब रख दे वो हाथ सर पे....
जैसे जादू सा कर देती है....
माँ तो बस.........
होती ही ऐसी है ।।

~~ मुकुल शर्मा ~~ 
__________________

Post a Comment

0 Comments