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उस रात
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कुछ रात हुआ भीषण निकृष्ट,सब ने पढ़ लिया पत्र में भोर।
खूब बातें झाड़ीं हर मुँह ने ,गाल बजे हुआ था शोर।
शर्मसार परिवार था रोया ,
दर्द से टूटा था हर पोर।
आज दिवस व् रात्रि वही हैं ,
घर से उनके रूठी भोर।
भूली दुनिया, रूठी खुशियाँ ,
उनका आज न ओर न छोर।
कहाँ गईं वे सहानुभूतियाँ ,
कवि ,टी वी वालों का जोर।
खा गए बीच -बिचौली वाले ,
रूपये लूटे ताबड़ - तोड़।
छोड़ शहर मकान बेच कर ,
भगे बिचारे बस्ती छोड़।
इस दुनिया में भाषण चक - मक,
बातें होतीं होड़म- होड़।
कहाँ गए सुख -दुःख के साथी,
दुनियां पर है छाया कोढ़।
कैसा शहर ये कैसा मेट्रो ,
चुरा ले गया सब जमा-जोड़।
हार गए बेचारे थक कर,
याद आये गाँवों के मोड़।
~~ ममता शर्मा ~~
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