Aprtyashit Akaanchaayen - vikas chandra pandey

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अप्रत्याशित अकान्छायें - विकास चन्द्र पाण्डेय
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बंद आँखों से देखे सपने ,
जो खो दिए थे मैंने शायद .
कही मेरे मन के एक कोने में ,
जिसे छोड़ दिया था मैंने शायद .
अपनी अप्रत्याशित अकान्छायें सोचकर ,
जिन्हें भुला चूका था मै शायद .
वो सपने पूरे हो रहे थे आज ,
जैसे बंद किताबों के पन्ने खुल रहे थे आज.
इस आज में भी एक कल छुपा बैठा था,
हमेसा की तरह वो मेरी परछाई बना बैठा था.
पर एक कलाकार की सोच थी वो अधूरे सपने जैसे ,
जो हर पल एक अलग रंग पा रहे थे शायद.
पर फिर भी कही न कही वो अपना अश्तित्व चाह रहे थे,
और हम इन्हें सच समझ जिए ही जा रहे थे.
आज जब ये पूरे हो चुके तो कितने छोटे लगते है,
बिना रोशनी के धुप के मकान लगते है.
शायद इन्हें ही अप्रत्याशित अकान्छायें कहते है.

~~ विकास चन्द्र पाण्डेय ~~
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