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बेटी माँ की परछाई होती है - पुनीत जैन "चिनू"
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माँ ही जनम देती है, फिर ऐसे क्यू रोटी है,
बेटी ही तो माँ की, परछाई होती है|
आंगन में हलके हलके पाँव जब चलती है,
पायल गूंज उठती है,
एक सुकून सा देती है,
बेटी माँ की परछाई होती है |
बचपन बढ़ते बढ़ते,
जवानी की सीढिय चढ़ते चढ़ते ,
आंगन समेटने को जी करता है,
मनो कभी ये भी छुट जायेगा,
मनन क्यू डरता है |
में जब भी गोलमटोल होकर सोती ,
माँ चुपके से माथे पर हाथ लगा रोटी,
की में भी जाउंगी परदेश,
में धुन्दती सपनो में पिया का देश |
आँख खुलती तो सामने होता मेरा ही घर ,
मुझको लगता है फिर कैसा ये दर,
कौन मुझको करेगा दूर ,
क्यू है माँ बाप ऐसे मजबूर|
ये जरुरी है में छोड़ दू अपना घर,
जिसमे जीती रही साँस हाथो में भर,
प्यार कण कण से करती हु में इस कदर,
हो गयी जो जुदा सच में जाउंगी मर |
कोई बन के सजन आ भी जाये इस कदर,
जान लेले मगर छीने न मेरा घर ,
में तेरे वास्ते पि भी लुंगी ज़हर,
बस मुझे बक्श दे मेरे बाबुल का घर !!!
~~ पुनीत जैन "चिनू" ~~
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